पौराणिक मान्यताएँ एवं माहात्म्य

वैदिक काल में इस पर्व को नवान्नेष्टि यज्ञ कहा जाता था। खेत के अधकचे-अधपके अन्न को, जिसे होला कहा जाता है, यज्ञ में हवन करके प्रसाद ग्रहण करने का विधान समाज में था। चूँकि इसमें होला का दहन होता है, इसी से इसका नाम होलिकोत्सव पड़ा।इस पर्व को नवसंवत्सर का आगमन तथा वसंतागम के उपलक्ष्य में किया हुआ यज्ञ भी माना जाता है।
कुछ लोग इस पर्व को अग्नि देव का पूजन मात्र मानते हैं।इस दिन मनु का जन्म भी हुआ था, अतः इस पर्व को मन्वादितिथि भी कहते हैं।
पुराणों के अनुसार ऐसी भी मान्यता है कि जब भगवान शंकर ने अपनी क्रोधाग्नि से कामदेव को भस्म कर दिया था, तभी से इसका प्रचलन हुआ।
ऐसी भी मान्यता है कि हिरण्यकश्यप की बहन राक्षसी ढुंढा नगर में बच्चों को डराती-धमकाती थी तथा उन्हें मौका देखकर मार डालती थी। एक दिन ब्रज के ग्वालों ने उसे पकड़ लिया। उसे अपने किए की सजा दी तथा पीटते-पीटते गाँव के बाहर ले आए। वहाँ ग्वालों ने उपलों, लकड़ियों, कंडों तथा घासफूस का ढेर बनाकर उसमें आग लगा दी।
आग प्रज्वलित होते ही उसमें ढुंढा को उठाकर पटक दिया और वह जलकर राख हो गई। अतः इस स्मृति में भी इस त्योहार को मनाया जाता है।
माहात्म्यइस दिन आम्र मंजरी तथा चंदन को मिलाकर खाने का बड़ा माहात्म्य है।
कहा जाता है कि फागुन पूर्णिमा के दिन जो लोग चित्त को एकाग्र करके हिंडोले (झूला) में झूलते हुए भगवान विष्णु के दर्शन करते हैं, वे निश्चय ही वैकुंठ को जाते हैं।
भविष्य पुराण के अनुसार नारदजी ने महाराज युधिष्ठिर से कहा था कि हे राजन! फागुन पूर्णिमा के दिन सभी लोगों को अभयदान देना चाहिए, ताकि सारी प्रजा उल्लासपूर्वक हँसे। विभिन्न प्रकार की क्रीड़ाएँ करे। होलिका का विधिवत पूजन करे और अट्टहास करते हुए यह त्योहार मनाए।
इस दिन अट्टहास करने, किलकारियाँ भरने तथा मंत्रोच्चारण से पापात्मा राक्षसों का नाश होता है। होलिका दहन से बुराई पर अच्छाई की विजय तो होती है। इस त्योहार को प्रेम और भाईचारे से मनाने से सारे अनिष्ट भी दूर हो जाते हैं।